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Wednesday, March 7, 2018

वैदिक जनजीवन (Vedic Life)

वैदिक जनजीवन (Vedic Life)

राजनीतिक जीवन (Political life)

ऋग्वेदिक राजनीति

सामान्य परिचय

  • पूर्व वैदिक काल में कबीलाई तत्वों की प्रधानता एवं अस्थाई जीवन के कारण राज व्यवस्था का व्यवस्थित स्वरूप नहीं दिखाई पड़ता है। 
  • वैदिक लोग भारत में विभिन्न कबीलों में विभाजित थे, इन कबीलो को जन कहा जाता था। 
  • भरत जन, इस काल का सर्वाधिक प्रमुख जन था।  इनका निवास क्षेत्र सरस्वती एवं यमुना नदी के बीच था।
  •  ऋग्वेद में विभिन्न जनों में संघर्ष का उल्लेख मिलता है, जिस में सर्वाधिक चर्चित दशराज्ञ युद्ध है। यह युद्ध रावी/परुष्णी  नदी के तट पर लड़ा गया। इस युद्ध में एक तरफ भरत जन के राजा सुदास (त्रित्सु कुल) तथा दूसरी तरफ 10 अन्य जन थे। 
  • युद्ध का कारण था- भरत जन के राजा  सुदास ने अपने पुरोहित विश्वामित्र को हटाकर वशिष्ठ को अपना पुरोहित बनाया था, तब विश्वामित्र ने अन्य 10 जनों को एकत्र कर राजा सुदास के खिलाफ युद्ध हेतु प्रेरित किया था, पर युद्ध में भरत के राजा सुदास की विजय हुई। 
  • पंच जन - अनु, यदु, पुरुं, द्रहयु एवं तुर्वस। 

राजा (King)

  • यह जन या कबीलों का प्रधान था, इसे जनस्य गोपा, गोप राजन आदि कहा जाता था। 
  • वस्तुतः राजा युद्ध नेता था। 
  • राजा का पद सीमित संदर्भों में वंशानुगत था। 
  • राज्यभिषेक की प्रथा का प्रचलन था। 

प्रतिनिधि सभाएं

  • पूर्व वैदिक काल में कबीलाई तत्वों की प्रधानता के कारण राजा के पास असीमित अधिकार नहीं थे। राजा पर नियंत्रण के लिए कुछ प्रतिनिधि सभाएं होती थी, जिसमें चार सभाएं प्रमुख थी - समिति, सभा, विदथ, गण। इनमें सभा एवं समिति मुख्य रूप से राजा के अधिकारों को नियंत्रित करती थी। 
  • समिति (लोकसभा जैसी) -यह कबीले की आम सभा थी। इसका सर्वाधिक महत्व था, क्योंकि राजा का चुनाव इसी के द्वारा किया जाता था। समिति का अध्यक्ष 'ईशान' कहलाता था। 
  • सभा (राज्य सभा जैसी) - यह वृद्धों एवं कुलीन लोगों की संस्था थी (उत्तर वैदिक काल में इसका महत्व समाप्त हो गया)
  • विदथ - इसके माध्यम से उपज संबंधित वितरण, सैन्य लूट का बटवारा आदि कार्य संपन्न होते थे। या प्राचीनतम संस्था थी। पूर्व वैदिक काल में स्त्रियां भी इस में भाग ले सकती थी। उत्तर वैदिक काल में इसका अस्तित्व ही लगभग समाप्त हो गया था। 
  • गण - यह भी कुलीनों की एक सभा थी। 

प्रमुख अधिकारी 

  • रत्निन - प्रमुख अधिकारियों के समूह विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया था। यह राजा के सहायक थे। 
  • पुरोहित - इन्हें अधिकारियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। 
  • सेनानी - यह पुरोहित के बाद आते थे। 
  • पुरप - किले का प्रधान होता था। 
  • स्पश - गुप्तचर। 

कर व्यवस्था

  • बलि - यह प्रजा द्वारा राजा को स्वेच्छा से दिया जाने वाला कर था, जिसे राजा उनकी सुरक्षा के बदले लेता था। (उत्तर वैदिक काल में या स्वेच्छा की जगह व्यवस्थित रूप में लिया जाने लगा)

सैन्य व्यवस्था 

  • कबीलाई व्यवस्था के कारण पूर्व वैदिक काल में स्थाई या नियमित सेना नहीं थी। युद्ध के समय ही सेना का गठन होता था। तीन प्रकार की सेनाएं थी - पैदल, घोड़ा व रथ। (उत्तर वैदिक काल में विस्तार पर व्यवस्थित उल्लेख नहीं, महाजनपद काल से ही सैन्य व्यवस्था का व्यवस्थित उल्लेख मिलता है)

न्याय व्यवस्था

  • इस काल में न्याय प्रणाली का व्यवस्थित उल्लेख नहीं मिलता है। (उत्तर वैदिक काल में विस्तार पर व्यवस्थित उल्लेख नहीं महाजनपद काल से ही न्याय व्यवस्था का व्यवस्थित उल्लेख मिलता है।) 

उत्तर वैदिक राजनितिक जीवन

सामान्य परिचय

  • लगभग 1000 ईसा पूर्व में उत्तर वैदिक काल का आरंभ होता है। ईस काल में लोहे के माध्यम से विभिन्न परिवर्तनों का आरंभ होता है। 
  • इस काल में पूर्व वैदिक काल के विभिन्न जन मिलकर जनपदों के रूप में विकसित हुए। (जैसे - भरत + पुरु = कुरु जनपद, तुर्वस + क्रिवि = पांचाल जनपद)
  • इस काल में पहली बार 'राष्ट्र' शब्द का उल्लेख मिलता है। संभवता इसका उल्लेख जनपद के लिए हुआ है। 

राजा

  • इस काल में हुए विभिन्न परिवर्तनों के कारण कबीलाई तत्वों का प्रभाव कम हुआ। राजा के अधिकारों में वृद्धि हुई तथा अब राजा के दैवीय उत्पत्ति सिद्धांत पर जोर दिया जाने लगा और वंशानुगत परंपरा पहले से ज्यादा मजबूत होने लगी। 

राजाओं के विभिन्न नाम

विभिन्न दिशाओं एवं क्षेत्र के आधार पर -
  • मध्य क्षेत्र : राजा 
  • प्राच्य / पूर्व : सम्राट 
  • पश्चिम : स्वराट
  • उत्तर : विराट
  • दक्षिण : भोज
  • चारों दिशाओं का राजा : एकराट
आगे चलकर मगध के नंदवंशी राजा महापद्मनंद एकराट की उपाधि धारण की। 
  • प्रमुख राजा - कैकेय - अश्वपति, काशी - अजातशत्रु, विदेह - जनक, कुरु - उद्वालक आरुणि, पंचाल - प्रवाहण जावलि (दार्शनिक राजा, पंचाल उत्तर वैदिक काल सर्वाधिक विकसित राज्य था।)

प्रतिनिधि सभाएं

  • इस काल में राजा के अधिकारों में वृद्धि के कारण समिति, सभा आदि संस्थाओं का महत्व कम हो गया। विदथ का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। 

प्रमुख अधिकारी 

  • रत्निन - इस काल में 17 रत्निनों का उल्लेख मिलता है। (पूर्व वैदिक काल में 7)
  • भागदुध - बलि व कर को वसूलने वाला अधिकारी। 
  • संग्रहीतृ -  बलि या कर को संग्रह करने वाला अधिकारी। 

कर व्यवस्था

  • अब कर व्यवस्था का व्यवस्थित स्वरूप उभर कर आता है। 
  • बलि - अब बलि स्वेच्छा से दिए जाने वाले कर की जगह स्थाई रूप से लिया जाने वाला कर हो गया। 
  • राजा को विशमत्ता (वैश्यों से कर लेने वाला) कहा गया है। 

सैन्य व्यवस्था

  • अभी भी सेना का स्थाई स्वरूप नहीं स्थापित हो सका था। 

न्याय व्यवस्था

  • सेना की तरह न्याय प्रणाली का भी व्यवस्थित स्वरूप स्थापित नहीं हो सका। 

सामाजिक जीवन

सामान्य परिचय

  • पूर्व वैदिक समाज का आधारभूत स्वरूप कालीबाई तत्व की प्रधानता के कारण 'समतावादी' माना जाता है। 
  • समाज संभवता तीन वर्गों में बांटा था - पुरोहित, सेनानी व सामान्यजन। 
  • वर्ण व्यवस्था - अभी वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के 9वे मंडल में एक परिवार का उल्लेख मिलता है, जिसमें उल्लेख करता स्वयं कवि है। उसके पिता वैद्य हैं तथा माता आटा पीसने वाली चक्की चला रही है। 
  • सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरुषसूक्त के तहत वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति की बात है। इसी मंडल में पहली बार शूद्रों का भी उल्लेख मिलता है। कहा जा सकता है कि पूर्व वैदिक काल के अंतिम चरण में जाति आधारित वर्ण व्यवस्था की नींव पड़ गई। हालांकि इसकी व्यवस्थित स्थापना उत्तर वैदिक काल में हुई थी। 

दास प्रथा

  • पूर्व वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था। 

परिवार

  • समाज की आधारभूत एवं सबसे छोटी इकाई थी। परिवार के लिए 'कुल' शब्द का प्रयोग हुआ है। 
  • परिवार पितृ सत्तात्मक था।  संभवता इसका कारण समाज का पशुचारित व्यवस्था पर आधारित होना था। 
  • संयुक्त परिवार का प्रचलन था। 
  • एक ही परिवार में कई पीढ़ी के लोग रहते थे। 

स्त्री स्थिति 

  • स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। स्थिती स्त्रियों को उपनयन संस्कार तथा शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। इस काल में चर्चित कुछ विदुषी स्त्रियां थी, जिन्होंने वैदिक मंत्रों की रचना की। जैसे - सिक्ता, विश्वआरा, अपाला घोसा, लोपामुद्रा आदि। (उत्तर वैदिक काल में गार्गी, मैत्रेई, कात्यायनी आदि की चर्चा मिलती है। )
  • स्त्रियां सभा, विदथ आदि संस्थाओं में भाग ले सकती थी। 
  • पुनर्विवाह, नियोग प्रथा, बहुपति विवाह आदि प्रचलित थी। 
  • बाल विवाह (विवाह रजस्वला से पूर्व नहीं होता था), दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, संपत्ति अधिकार आदि प्रचलित नहीं थे। 
  • आभूषण : निष्क - इसका अर्थ स्वर्ण का ढेर या आभूषण से है। अयस - कांसा या तांबा के लिए प्रयोग (चांदी व लोहे का उल्लेख नहीं है) 
  • भोजन - शाकाहारी व मांसाहारी दोनों थे। भोजन में गाय से संबंधित चीजों, जैसे - दूध, दही, मक्खन आदि का महत्व था। गाय का 'अघन्या' अर्थात न मारने योग्य कहा गया है। चावल, मछली, नमक आदि का उल्लेख नहीं मिलता है। सुरा पेय की निंदा की गई है, जबकि सोम पान की प्रशंसा की गई है। 
  • मनोरंजन - पासा ,नृत्य, संगीत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि। 

उत्तर वैदिक समाज 

वर्ण व्यवस्था

  • पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था की नींव तो पड़ गई थी परंतु इसकी व्यवस्थित स्थापना व विस्तार उत्तर वैदिक काल में हुयी। इसके तहत विभिन्न वर्णों की स्थिति जाति द्वारा निर्धारित होने लगी, जो इस प्रकार है -
  • ब्राम्हण - 1000 ईसा पूर्व में लोहे के आगमन के साथ उत्तर वैदिक काल का आरंभ होता है। लोहे के आगमन से कृषि अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ। इससे कृषि अधिशेष की भी उत्पत्ति हुई और इस अधिशेष को अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ की संख्या में वृद्धि की गई। परिणामतः ब्राह्मणों की स्थिति सुदृढ़ हुई। इनका स्थान सर्वोच्च था। 
  • क्षत्रिय - इन की स्थिति ब्राह्मणों के बाद थी। 
  • वैश्य - रामगढ़वा क्षतियों के साथ ही वैश्यों को भी 'द्विज' में शामिल किया गया। अर्थात इन तीनों को उपनयन संस्कार का अधिकार था। (शूद्र द्विज में शामिल नहीं थे। ) वैश्यों को अनस्यवलिकृत (दूसरे को कर देने वाला) कहा गया है। 
  • शूद्र वर्ग - इसका कार्य अन्य वर्गों की सेवा करना था। 

गोत्र व्यवस्था

  • उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। 
  • गोत्र का तात्पर्य था, जहां एक ही स्थान पर गोधन को एकत्र किया गया हो। एकत्र करने वाले लोग एक ही कुल के होते थे। यही से गोत्र के बाहर अर्थात एक ही गोत्र में नहीं विवाह करने की प्रथा चली। 

आश्रम व्यवस्था

  • उत्तर वैदिक काल में ही आश्रम व्यवस्था भी स्थापित हुई। 
  • तीन आश्रम थे - ब्रम्हचर्य (25 वर्ष तक), गृहस्थ (25 से 50 वर्ष), वानप्रस्थ (50 से 75 वर्ष)। सन्यास (75 से 60 वर्ष) की चर्चा अभी नहीं है (पहली चर्चा जबालो उपनिषद में)।  
  • गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ बताया गया है। 
  • गृहस्थ आश्रम में ही 3 ऋणों से मुक्ति मिल जाती थी - ऋषि ऋण (वेदाध्ययन से), पितृ ऋण (पुत्र जन्म से) एवं देव ऋण (यज्ञ आदि से)
  • गृहस्थ आश्रम में ही पुरुषार्थ के तीन तत्वों - धर्म, अर्थ, काम का ज्ञान हो जाता था। (पुरुषार्थ के चार तत्व - धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष)

स्त्री स्थिति

  • स्त्री स्थित में गिरावट आई। अब उपनयन एवं वेद  अध्ययन का अधिकार नहीं था। सभा, विदथ आदि में भागीदारी नहीं थी। पर्दा प्रथा, सती प्रथा आदि का संकेत मिलता है। 

स्त्री स्थित में गिरावट से संबंधित कुछ दृष्टान्त -

  • ऐतरेय ब्राम्हण में पुत्री को समस्त दुखों का कारण बताया गया है। 
  • वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य एवं गार्गी में संवाद चलता है। जिसमें विमर्श के दौरान ही गार्गी का सिर तोड़ने की बात है। 
  • मैत्रेई संहिता में स्त्री की तुलना सुरा तथा पाषा जैसी बुराइयों के साथ की गई है। 
  • हालांकि इस समय भी कुछ विदुषी स्त्रियों की चर्चा है। जैसे - गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी। 

विवाह

  • विवाह के दो रूप प्रचलित थे - १) अनुलोम विवाह (पुरुष उच्च वर्ग का तथा कन्या निम्न वर्ग की। उदाहरण के लिए ब्राम्हण पुरुष के साथ क्षत्रिय कन्या) २) प्रतिलोम विवाह (पुरुष निम्न वर्ग का तथा कन्या उच्च वर्ग की।  उदाहरण के लिए वैश्य स्त्री के साथ शूद्र पुरुष)

पूर्व वैदिक अर्थव्यवस्था

पशुपालन

  • अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार पशुपालन था। 
  • गाय - सर्वाधिक महत्व था। ऋग्वेद में गाय का 176 बार उल्लेख मिलता है। संपत्ति के तथा विनिमय का आधार गाय ही था। गाय के लिए ही अधिकांश लड़ाईयां होती थी। युद्ध हेतु 'गविष्टि' (गाय की खोज) शब्द का उल्लेख मिलता है। 
  • घोड़ा - इसका उपयोग रत्नों के लिए होता था। 
  • हाथी व बाघ का उल्लेख नहीं मिलता है। 
  • व्राजपति - चारागाह देखभाल करने वाला। 
  • पाणि - पशु चुराने वाला। 

कृषि

  • कृषि का नगण्य महत्व था। (ऋग्वेद में सिर्फ 24 मंत्र कृषि संबंधित।)
  • ऋग्वेद में कृषि संबंधी शब्द - उर्दर (अनाज मापक यंत्र) धान्य वपन्ति,चर्शिनी खिल्ल आदि। 
  • हल के रूप में लकड़ी के फाल के उल्लेख मिलता है। 
  • एक ही महत्वपूर्ण अनाज था - जौ (यव)
  • भूमि पर सामूहिक स्वामित्व था। 

उद्योग

  • बढ़ईगीरी का कार्य सर्वाधिक प्रमुख था। रथकार को समाज में महत्व प्राप्त था। 

व्यापार

  • आंतरिक व्यापार में विनिमय का माध्यम गाय था। 
  • विदेश व्यापार का उल्लेख नहीं मिलता है। 

उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्था

कृषि

  • सर्वाधिक प्रमुख व्यवसाय कृषि था। 
  • लोहे के लिए श्याम अयस या कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग मिलता है (पूर्व वैदिक काल में अयस शब्द का उल्लेख कांसा या तांबा के लिए किया गया है)। लोहे के प्रयोग से कृषि का विस्तार हुआ तथा स्थाई जीवन की शुरुआत हुई थी। 
  • शतपथ ब्राम्हण में कृषि संबंधित चार क्रियाओं कृषन्तः  (जुताई), वपन्तः (बुवाई), लुनन्तः (कटाई), मृणंतः (मड़ाई) का उल्लेख मिलता है। 
  • काठक संहिता मैं 24 बैल द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख मिलता है। 
  • अथर्ववेद में खाद का उल्लेख मिलता है। 
  • भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व का विकास हुआ। 

पशुपालन

  • इस काल में हाथी पालन की शुरुआत हुई थी। 

उद्योग

  • लोहे के उपकरणों का निर्माण हुआ। 
  • इनका प्रमुख व्यवसाय कुंभकारी था। 

व्यापार

  • आंतरिक व्यापार में वस्तु विनिमय पद्धति प्रचलित थी, क्योंकि सिक्कों का प्रचलन नहीं हुआ था। 
  • विदेश-व्यापार का प्रमाण मिलता है। (समुद्र की विस्तृत चर्चा)
  • शतपथ ब्राम्हण में साहूकारी प्रथा की चर्चा मिलती है। (कुसीद-सूदखोरी)
  • निष्क (सोना), शतमान (चांदी) का भी उल्लेख मिलता है। 

नगर

  • उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में कुछ नगरों का विकास दिखाई पड़ता है। प्रारंभिक नगरों में हस्तिनापुर, कौशांबी आदि उल्लेखनीय हैं। इन्हें आद्य नगर भी कहा जाता है। 

धार्मिक जीवन

पूर्व वैदिक धर्म

  • तत्कालीन भौतिक जीवन एवं परिवेश से प्रभावित था। वह प्रकृति पूजक एवं बहुदेववादी थे।
  • प्रमुख देवता विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक के रूप में थे। 
  • देवताओं की उपासना का तरीका स्तुति, यज्ञ एवं बलि पर आधारित थी। 

विभिन्न देवता 

  • कुल 33 देवताओं का उल्लेख मिलता है। जिनकी तीन श्रेणियाँ थी - पृथ्वी श्रेणी (अग्नि, सोम, पृथ्वी), अंतरिक्ष श्रेणी (इंद्र, वायु, मरुत), आकाश श्रेणी (द्योस, वरुण, मित्र, सूर्य, सविता, पूषन, विष्णु)
  • इंद्र - यह ऋग्वेदिक काल के सर्वाधिक प्रमुख देवता थे। (उत्तर वैदिक काल में सर्वाधिक प्रमुख देवता प्रजापति हो गए थे)
  • यह वर्षा (बादल) के देवता माने जाते थे। 
  • इन्हें युद्ध नेता एवं पुरंदर (किले को तोड़ने वाला) भी कहा गया है। 
  • अग्नि - अग्नि को मनुष्य एवं देवताओं के बीच मध्यस्थ के रूप में देखा गया है। (पारसी धर्म में भी अग्नि का महत्वपूर्ण स्थान है, उसे देवत्व का प्रतीक एवं ईश्वर के पुत्र के रूप में माना गया है। यह सत्य के मार्ग का मार्गदर्शन करता है, जिससे अशुद्धता एवं अधर्म नष्ट होता है। )
  • वरुण - इन्हें जल या समुद्र का देवता कहा गया है। (इंद्र - वर्षा के देवता थे )
  • इन्हें 'ऋतस्य गोपा' भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है - नैतिक नियमों का रक्षक तथा पापियों को दंड देने वाला। 
  • रितेश गोपा का एक अर्थ - प्राकृतिक संतुलन का रक्षक भी है। 
  • मित्र - उगता हुआ सूरज। 
  • सविता - सविता का अर्थ है चमकता हुआ सूरज। ऋग्वेद के तृतीय मंडल में वर्णित गायत्री मंत्र सविता को समर्पित है। 
  • मरुत - आंधी के देवता। 
  • अश्विन - चिकित्सक देवता। (अश्विन, नासत्य को सूर्य के साथ जोड़ा गया है)। 
  • पूषन - वनस्पति एवं औषधि का देवता माना गया। साथ ही उन्हें पशुओं का देवता भी कहा गया। 
  • विभिन्न देवियां - कम उल्लेख, उषा (प्रभात या सुबह की देवी)

 उत्तर वैदिक धर्म

  • उत्तर वैदिक काल में लोहे के आगमन से धार्मिक क्षेत्र में भी कई परिवर्तन आए। इस समय कृषि अर्थव्यवस्था के विकास से कृषि अधिशेष को हस्तगत करने के लिए ब्राम्हण एवं क्षत्रियों में संघर्ष चल रहा था। इसी प्रक्रिया में बृह्मणों ने यज्ञ एवं कर्मकांडों को काफी बढ़ावा दिया। 

विभिन्न देवता

  • प्रजापति - इन्हे सृजन का देवता माना गया। जिस तरह इंद्र पूर्व वैदिक काल के प्रमुख देवता थे, उसी तरह प्रजापति उत्तर वैदिक काल के सर्वाधिक प्रमुख देवता बन गए थे। 
  • विष्णु - इन्हें पालन पोषण एवं रक्षक देवता माना गया है। 
  • रुद्र - इन्हें पशुओं का देवता माना गया है। (पूर्व वैदिक काल में पूषण वनस्पति एवं औषधि के साथ ही पशुओं के देवता भी माने जाते थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता बन गए) 
  • पूषन - यह उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता थे। 
  • वरुण - जल देवता। 

विभिन्न यज्ञ

  • इस काल में यज्ञ का महत्व अत्यधिक बढ़ गया था। 
  • यज्ञों के दो रूप थे - १) सामान्य कर्मकाण्डीय यज्ञ (दर्श-अमावस्या को, पूर्णिमास-पूर्णिमा को) २) राजकीय प्रयोजन हेतु यज्ञ (राजसूय यज्ञ, बाजपेय यज्ञ, अश्वमेघ यज्ञ) 


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